शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

पत्थरो से बंजर होती कोडरमा की जमीन

झारखंड का कोडरमा जिला कुछ दिनों पहले तक पूरी तरह पहाडों व जंगलों से घिरा हुआ था. लेकिन आज स्थिति ठीक इसके विपरीत है. यहां चल रहे क्रषर एवं छोटे-बडे पत्थर के खदानों के कारण पूरे जिले में धूलकणों की मोटी तह बिछ गई है. कभी हरा-भरा दिखाई देने वाला यह इलाका आजकल प्रदूषण गंदगी एवं भूमि बंजरीकरण के दौर से गुजर रहा है. समस्या की विकरालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिले के डोमचांच इलाके में लगभग दौ सौ वर्ग किमी क्षेत्र के अंदर नौ सौ से अधिक क्रशर एवं दो सौ से अधिक की संख्या में छोटे-बडे पत्थर खदानें है. जिले के डोमचांच इलाका एक ओर जहां सबसे ज्यादा राजस्व चुकाता है वहीं दूसरी औरं सबसे अधिक गिट्टी का उत्पन्न भी करता है. यहां पर क्रषरों की बढती संख्या और उससे निकलने वाले गैस, धूलकण और षोर ने लोगों का जीना दूभर कर दिया है. जिले के चंदवारा प्रखंड की भी हालत कुछ ऐसी ही है. यहां भी लगभग सौ की संख्या में क्रषर काम कर रहे है. इन प्रखंड के अन्तर्गत आने वाले गांव फुलवरिया, धरगांव, इंदरवा, नवलषाही, पुरनाडीह, बरियाडीह आदि गांवों के लोग इन क्रषरों की वजह से दमघोंटू जिंदगी जीने के लिये मजबूर हैं. सिर्फ इतना ही नहीं इनकी वजह से यहां के जंगल तेजी से उजडते जा रहे है. इन इलाकों के जो गिने चुने पेड बचे है उनकी पत्तियां हरी नहीं ब्लकि धूलकण एवं डस्ट के कारण सफेद हो चुकी हैं. ऐसे इलाकों में शाम के वक्त पांच फीट से कम की दूरी पर भी कुछ नहीं दिखाई देता है. वैज्ञानिकों के अनुसार शाम को वायुमंडल ठंडा होने के कारण धूलकण नीचे मंडराता है जिसकी वजह से इस समय चीजों को देखने में मुष्किल होती है. जिन इलाकों में धूलकण की मात्रा जितनी अधिक होती वहां चीजें उतनी अस्पश्ट दिखाई पडती है. क्रषरों से निकलने वालें धूंये व धूलकण ने न केवल यहां के लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला हैं अपित इन इलाक की जमीन भी इससे बुरी तरह प्रभावित है. हजार हेक्टयर से अधिक की जमीन यहां पर मरूभूमि में तब्दील हो चुकी है. इन बंजर बनते जमीन को देख यहां किसान काफी चिंतित है. कटरियाटांड के मंजूर आलम व मो. अस्लम का कहना है कि क्रषरों की वजह से पूरा इलाका जंगलविहीन बन चुका है. जिसका व्यापक असर कृशि पर पडा है पिछले पांच साल से सुखाड व अकाल की समस्या इसी का परिणाम है. नवलषही के रामचंद्र साव, बिरजू दास, बदरी पंडित की सोच कुछ ऐसी ही है. ये सभी चाहते है कि क्रषर बंद हो. गौर करने की बात तो यह है कि इस विकराल समस्या पर न ही प्रषासन चिंतित है और न ही जनप्रतिनिधि. प्रषासन को पैसा मिलता है. जबकि ज्यादातर जनप्रतिनिधि के खुद के ही क्रषर चलते हैं ऐसे में इनके खिलाफ आवाज उठाये तो कौन? (इन्द्रमणी का आलेख)

4 टिप्‍पणियां:

L.Goswami ने कहा…

इसे कहतें हैं विकाश की अंधी प्रतियोगिता.

पारुल "पुखराज" ने कहा…

jub kabhi udher jana hota hai/mun me baar baar yahi prashn utth_ta hai /ye sab leeley jaa rahey hain prakriti ko

विवेक सिंह ने कहा…

विचारणीय मुद्दा है.

विवेक सिंह ने कहा…

पहली पोस्ट की बधाई देना भूल गया था इसलिए वापस आया . बधाई हो .लिखते रहें .