बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

अभ्रख उद्योग पर अस्तित्व का संकट

सरकारी उदासीनता के कारण कोडरमा जिले का मशहूर अभ्रख उद्योग आज अस्तित्व के संकट से गुजर रहा है. आज भी विश्व के मानचित्र पर कोडरमा की पहचान अभ्रख उत्पादक क्षेत्र के रूप में है, लेकिन विडंबना है कि यहां आज अभ्रख व्यवसाय से गिने-चुने लोग ही जुड़े रह गए है. वैसे तो पुरानी बंद पड़ी अभ्रख खदानों और जंगलों से माइका के छोटे-छोटे टुकड़े, जिसे स्थानीय बोलचाल की भाषा में ढिबरा कहते है, चुनकर हजारों परिवार आज भी जीवन-यापन करता है. इनके द्वारा उत्पादित अभ्रख यहां के व्यापारियों के जरिए आज भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंचकर लाखों विदेशी मुद्रा अर्जित कर रहा है. अवैध तरीके से चल रहे इस कारोबार में कुछ व्यापारी तो लाभान्वित हो रहे है, लेकिन मजदूरों को दो जून की रोटी से ज्यादा कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा है. सरकार को भी कोई राजस्व की प्राप्ति इस तरह के कारोबार से नहीं हो रही है. वन संरक्षण अधिनियम-1980 के लागू होने के बाद जिले के जंगली के क्षेत्र में स्थित सारे माइका खदान एक-एक कर बंद होते गए. इस क्षेत्र के अधिकतर माइका खदान चूंकि जंगली क्षेत्र में ही स्थित थे, इसलिए इन पर वन विभाग का शिकंजा कसता चला गया. स्थिति ऐसी हो गई कि जेएसएमडीसी की भी सभी खदानें एक-एक कर बंद हो गई. राज्य सरकार ने भी इस उद्योग को जीवित रखने और बढ़ावा देने की दिशा में कोई वैकल्पिक उपाय नहीं किए. वैसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में माइका के कई वैकल्पिक उत्पाद आ जाने के बाद इसकी मांग में भी कमी आती गई. आज यहां माइका के कई पुराने निर्यातक हैं, जो स्थानीय माइका व्यवसायियों से प्रोसेसिंग किया हुआ उत्पाद लेकर विदेशों में निर्यात का काम करते है. स्थानीय माइका व्यवसायी इन्हीं ढिबरा चुनने वाले मजदूरों से माइका के छोटे टुकड़े खरीदते है, जिसे वर्षो पूर्व खदान संचालक खराब माल समझकर फेंक दिया करते थे. आज उन्हीं ढेरों में से माइका के छोटे-छोटे टुकड़े चुनकर मजदूर माइका व्यवसायियों के हाथों बेचते है. दशकों से यहा का माइका व्यवसाय इसी ढिबरा की बदौलत चल रहा है. समय-समय पर वन एवं जिला प्रशासन इस पर भी रोक लगाने का अभियान चलता है, जिसके विरोध में माइका व्यवसायी और ढिबरा मजदूर उठ खड़े होते है. कोडरमा और गिरिडीह जिले के हजारों मजदूर इसी व्यवसाय पर निर्भर है. बहरहाल, यहां के भूगर्भ में अभ्रख तो है, लेकिन उत्खनन पर रोक होने के कारण माइका आधारित उद्योग यहां स्थापित नहीं हो पा रहा है. अस्सी के दशक में भारत सरकार द्वारा स्थापित माइका ट्रेडिंग कारपोरेशन पिछले एक दशक से प्राय: बंद की स्थिति में है. इसके अलावा निजी क्षेत्र के सैकड़ों छोटे-बड़े माइका के कारोबारी भी अपना व्यवसाय समेट चुके है. ऐसे में सरकार के रवैये और क्षेत्र की स्थिति से निकट भविष्य में यहां माइका उद्योग के उत्थान की कोई संभावना दिखाई नहीं दे रहा है, क्योंकि पर्यावरण सुरक्षा के दृष्टिकोण से वन विभाग यहां के सुरक्षित वन क्षेत्र में कोई भी गैर वानिकी काम करने पर कड़ी रोक लगा रखा है. दूसरी बात है कि माइका के नये भंडार की खोज और उत्खनन का कार्य भी आज के समय में काफी महंगा हो गया है, जो साधारण लोगों के लिए संभव नहीं है.

3 टिप्‍पणियां:

Amit K Sagar ने कहा…

बहुत बढ़िया सर. धन्यवाद.
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अमित के. सागर

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

शब्द बहते भावना के संग यही लेखन का है अंग
अभ्रक के प्रति आपकी चिंता लाजिम और सार्थक है
सुंदर विचार से आपूर्ण बधाई
सुंदर प्रस्तुति से तारुफ़ हुआ आपका बहुत स्वागत है
मेरे ब्लॉग पर आप पधारें ऐसी चाहत है

अभिषेक मिश्र ने कहा…

Jharkhand se ek aur mitra ko blog par dekh acha laga. Achi jaankariyukt lekh. Swagat.
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